किससे बोलता झूठ
और किससे चुराता मुँह
किसकी करता मुँहदेखी
किसके आगे हाँकता शेखी
हर तरफ़ अपना ही तो चेहरा था
नावे तों बहुत थी
नदारद थी तो बस नदी
चेहरों पर थी दुखों की झाँई
जिसे समय ने रगड-रगड़ कर
और चमका दिया था
सारी कला एक अदद
शोकगीत लिखनें में बिला रही थी
जिसने भी रखा पीठ पर हाथ
बस टटोलने लगा रीढ़
हम खड़े थे समय के सामने
जैसे लगभग ढह चुकी
दीवारों वाले घर की चौखट पर
खड़ा हो कोई एक
मज़बूत दरवाज़ा