बहुत दिनों बाद बाबू का सड़क पर मिलना,
फ़रवरी के आखिरी हफ़्ते में
धूल और सूखी पत्तियों के बीच
बचपन के बसन्त के हँसने की तरह था...
पर बाबू को देखना
एक पूरे पतझर में गिरफ़्तार
मैदान में अलग-थलग खड़े
अकेले पेड़ को देखना था,
एक मज़बूत गठान जितनी मुश्किल से खुलती है
उतनी ही दिक्क़त के बाद
पर फिर वह खुला
खटकेदार चाकू की तरह
बोलते हुए-
"तेरी कविता में एक दिन था मैं माठूचंद
मैं खो गया था अपने बाप के लिए
आज तेरा बाबू अपने से ही खो गया है..."
और फिर नुक्कड़ पर खड़े-खड़े
वह बेटी की होने वाली शादी
बाप के रवैये और इल्ज़ाम के बारे में
कहने लगा...
दूर गुफ़ाओं से निकलकर आ रहे शब्द
कैंची की तरह एक-दुसरे को काट रहे थे
और ट्रैफिक की आवाज़ों और पहिये के नीचे
हमारी दोस्ती के कुचले हुए बचपन को
अपनी निस्तेज आँखों से देखते हुए
हम चुपचाप खड़े थे...