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हम देहरी-दरवाज़े ! / दिनेश सिंह

राजपाट छोड़कर गए
राजे-महाराजे
हम उनके कर्ज पर टिके
देहरी-दरवाजे

चौपड़ ना बिछी पलंग पर
मेज़ पर बिछी
पैरों पर चाँदनी बिछी
सेज पर बिछी

गुहराते रोज़ ही रहे
धर्म के तकाजे

अपने-अपने हैं कानून
मुक्त है प्रजा
सड़ी-गली लाठी को है
भैंस ही सज़ा

न्यायालय : सूनी कुर्सी
क्या चढ़ी बिराजे !

चमकदार आँखें निरखें
गूलर का फूल
जो नही खिला अभी-कभी
किसी वन-बबूल

अंतरिक्ष में कहीं हुआ
तारों में छाजे