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हम निभाते हैं नहीं / प्रेमलता त्रिपाठी

रीति जग की है पुरानी, हम निभाते हैं नहीं।
प्रीति मन में हैं बसी क्यों, हम जगाते हैं नहीं।

ढो रहे निर्जीव काया, संकुचित मन भाव से,
भंग करके मोह अपना, क्यों सजाते हैं नहीं।

हम सदा यह जानते जो, बो रहे वह काटना,
बीज सच अंकुर फले जो, हम उगाते हैं नहीं।

भीत मन हम जी रहे जो, कल न जाने हों कहाँ,
कल विगत जो आगया कल, हम बचाते हैं नहीं।

दीन होकर माँगते हम, कम न होती लालसा,
गर्त में जाती मनुजता, हमलजाते हैं नहीं।

क्यों बढ़ी दुविधा हृदय की, काल के हम गाल में,
भूलकरमन की कुटिलता, मुस्कराते हैं नहीं।

प्रेम पलता पालने से, जन्म दूजा हो न हो,
आज को जीना हमें है, फिर गँवाते हैं नहीं।