अस्मिता के प्रश्न पर जग मौन है
भावनाएँ मर गयीं
हम मात्र सम्बोधन जिये
जब उठाया शीष तो दुत्कार पायी
जब भरी हुंकार फटकारें मिलीं।
स्वाभिमानी दीप जाते हैं बुझाये,
मुखरता को हेय धिक्कारें मिलीं।
सभ्यता के प्रश्न पर जग मौन है
व्यवस्थाएँ मर गयीं
हम मात्र संशोधन जिये
तख़्तियों ने ख़ूब, आवाज़ें लगायीं
देवाताओं क्यों नहीं, देता सुनाई.
अस्मिता पर चोट खा, मन फट गया है
मरहमों से अब नहीं, होती लिपाई
भव्यता के प्रश्न पर जग मौन है
आस्थाएँ मर गयीं
हम मात्र उद्बोधन जिये
सीढियाँ वर्जित रहीं, जब पग बढ़ाया,
मंन्दिरों में पूज, कोठे पर बिठाया।
प्रश्न अब अस्तित्व पर उठने लगा है
दाँव पर हर बार नारी को लगाया
दिव्यता के प्रश्न पर जग मौन है
प्रार्थनाएँ मर गयीं
हम मात्र आंदोलन जिये