शान्ति थी चारों तरफ
सर्वत्र फैली थी हरियाली
मौसम भी अच्छा था
जमीन पर वृक्ष
वृक्षों पर बसेरा पक्षियों का
समीप ही बसा था शहर भी
शहर के बाहर बसी उस टूटी-फूटी
दलित बस्ती में
शहर से प्रवेश कर लिया गर्म हवाओं ने
घास फूस से बनी झोपड़ियाँ सुलगने लगी हैं
हवाओं की आग से
हवायें ऊँच-नीच की...
धनी-निर्धन की...
छुआछूत की...
संतोश-असंतोश की...
शनै... शनै... शनै... सुलगती इस आग से
भूमि जलने लगी है
एक ज्वालामुखी बनने लगा है जमीनों के भीतर
जिसे फटना ही है एक दिन
जलाना है ऊँच-नीच...
छुआछूत... संतोश-असंतोश...
ठंडे लावे से निर्मित होगी उर्वरा भूमि
निकलेंगे बहुमूल्य रत्न
मानवता के ... समानता के... सम्मान के...
ज्वालामुखी का फटना आवश्यक तो नहीं
सद्भावना के वृक्षों से आती
शीतल हवाओं द्वारा
हम रोक सकते हैं
गर्म हवाओं को
फटने से रोक सकते हैं ज्वालामुखी को।