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हम संग्रहालय प्रेमी नहीं / दीपक मशाल


क्योंकि नहीं चाहते हम जानना सत्य
हमारे तमाम अंधविश्वासों का
नहीं चाहते जानना
झाँक रहा है कौन बदसूरत चेहरा
सामने वाली खिड़की के मखमली परदे के पीछे से
नहीं देख सकते होते खंडित काल्पनिक इन्द्रधनुष

हमारे लिए मान्यताओं की 'लकीरें' बनाती हैं धर्म
जिनके हम होते हैं 'फ़कीर'
नहीं मांगने होते हमें सबूत जो कहें कि
'इंसान का पूर्वज था बन्दर या उससे भी पहले था चूहा..
या कोई और तुच्छ प्राणी..'

घबराते हैं हम लेने से सबक अपनी असफलताओं से
नहीं चाहते गंवाना समय ढूँढने में मंत्र सफलता के

नहीं है हमें कोई रूचि देखने में वो प्रमाण
जो युद्ध को परिभाषित करें विभीषिका
जो कहें कि जंग है एक आगाज़ आदम के अंत की
और है एक उकसाव
हव्वाओं को कातर विलाप करने के लिए..

करती हैं तौबा हमारी आँखें देखने से टैंक
स्टेनगन, खोखे हथगोलों के, मिसाइल के नमूने
ये सब दिलाते हैं ये हमें याद
लड़ी गई पिछली लड़ाइयों की

एक-एक गोली से चिपके दसियों भूत...
भूत सिर्फ उस सैनिक के नहीं
जो बना निशाना सुदर्शन चक्र की तरह घूमती उस जानलेवा धातु का
बल्कि भूत उनके भी
जो बच सकते थे मरने से भूखे पेट
एवज में उस बुलेट को खरीदने में खर्चे गए रोकड़ के
लेकिन अंतड़ियों को अमन से जीने देने के बजाय
चुना उन असलहों ने उमेंठना, भभोंड़ना उन्हें..
उनमे घुसकर उन्हें फाड़ डालना..
और ऐसे भावुक हालात
हमारे अन्दर के मृत्यु-शय्या पर पड़े इंसान को
अक्सर कर देते हैं विवश झुका लेने को नज़रें शर्म से
जो हमारी बाहरी मगरमच्छी खाल को नहीं होता मंजूर.

हमें नहीं देखने होते संग्रहालयों में मौजूद डायनासौर कंकाल
उनका मिट जाना कर सकता है पैदा संदेह
मनुष्य जाति की अमरता पर

हम बाह्य नग्नता को दे अश्लीलता का सम्बोधन
करना चाहते हैं संतुष्ट
अपने आंतरिक नंगेपन को

नहीं चाहते हम सुनना पैरवी यथार्थ की..
भ्रम की मुंदी आँखों का अँधेरा
रौशनी में सामने बैठी बिल्ली के भय से कुछ तो राहत देता है..
असल में
हम खोकर ये नैन सावन की हरियाली में
नहीं वापस चाहते पाना बर्फीली सर्दी में
इसलिए बेहतर मानते हैं इंतज़ार फिर से होने का सब हरा

हम रखते हैं
अपनी अलग-अलग
रंगबिरंगी टोपी वाली टोलियों के
कच्ची-पक्की कहानियों वाले इतिहास
जिनसे गुज़रना अगली पीढ़ियों का
विपरीत रंगी नाम सुनते ही
भरता रहे उनके लहू में एड्रिनेलिन..

रोशनी के दुश्मन में दिखती
हर तीन नोंक वाली आकृति में ढूंढ लेते हैं हम
त्रिशूल, चाँद सितारे या कुछ और..
मगर कर देते हैं खारिज हमारी ऐसी सोच ये बेहया संग्रहालय
ये लगाते हैं धक्का अरबों साल पुरानी इस धरती पर
हमारी कुछ सैकड़ा साल पुरानी संस्कृति को

देकर के मुट्ठी भर राई के दानों जितनी
सूक्ष्मदर्शी के नीचे से निकली थ्योरीज
ये संग्रहालय कर सकते हैं नेस्तनाबूद
पिछली पीढ़ियों से मिले हमारे दिशाहीन भाषाई संघर्ष
हमारे आन्दोलन
गोरे-काले के विवाद

नई पुरातात्विक खोजें देती हैं हमें खुशी
गर खा जाएँ वो मेल हमारी खुशहाल कल्पनाओं से
गहरी नींद में भी हम कर सकते हैं स्वीकार वो सबूत
जो करें बात हमारे मनचाहे मलबे के होने की
नीचे गैर-सम्प्रदाय की इमारत के

पर प्रमाण जुटाने का इनका यह सिलसिला थमता नहीं
इसीलिये हमें गुजरते है नागवार ये संग्रहालय
क्योंकि इनमें संरक्षित इससे आगे की खोजें
फिर होती हैं झूठ हमारे लिए

क्योंकि ये खोजें देती हैं प्रमाण
उस मलबे से भी नीचे मौजूद
किसी तीसरी जिंदा सभ्यता की विरासत का

उससे भी बड़ा झूठ होता है इनका वह सच
जो कहता है
'इन सारी इमारतों के नीचे थी कभी कोरी ज़मीन
जिस पर जताने के लिए मालिकाना हक
भाषा को निर्मित और लिपिबद्ध कर सकने वाला
कोई दोपाया उस वक़्त तक ना जन्मा था..'

और संग्रहालयों की यही संदेह कराने की प्रवृत्ति
बनाती है हमें उसके प्रति उदासीन

बेमतलब यह संग्रहालय जुटाते हैं साधन यह सिद्ध करने को कि
उस पल जबकि यह कविता रही जा रही है पढ़ी
जीव विज्ञान के अनुसार
धरती पर मौजूद हर जिंदा कही जाने वाली चीज
कभी जन्मी थी एक कोशिका से
और इसमें उनकी मान्यताओं का कोई हाथ ना था
क्यों उस वक़्त तक जन्मा ही न था कोई अंग..

ऐसे ही कारणों की है एक अंतहीन फेहरिस्त
जो हमारे माथे पर एक लेबल चस्पा करती हैं
जिस पर लिखा है
'हम संग्रहालय प्रेमी नहीं हैं..'