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हम समझते हैं आज़माने को / मोमिन

हम समझते हैं आज़माने को
उज्र कुछ चाहिए सताने को

सुबहे-इशरत है न वह शामे-विसाल
हाय क्या हो गया ज़माने को

बुलहवस रोये मेरे गिरियाँ पे अब
मुँह कहाँ तेरे मुस्कुराने को

बर्क़ का आसमाँ पर है दिमाग़
फूँक कर मेरे आशियाने को

रोज़े-मशहर भी होश अगर आया
जायेंगे हम शराबख़ाने को

कोई दिन हम जहाँ में बैठे हैं
आसमाँ के सितम उठाने को

संग-ए-दर से तेरे निकाली आग
हमने दुश्मन का घर जलाने को
 
चल के का'बे में सिजदा कर 'मोमिन'
छोड़ उस बुत के आस्ताने को

शब्दार्थ:
उज्र = बहाना
सुबहे-इशरत = सुखद सुबह
बुलहवस = लालच का खेल
संग-ए-दर = दरवाज़े का पत्थर, चौखट
आस्ताने = द्वार, दरवाज़ा