राग कान्हरौ
हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना ।
मनिमय आँगन नदराइ कौ, बाल-गोपाल करैं तहँ रँगना ॥
गिरि-गिरि परत घुटुरुवनि रेंगत, खेलत हैं दोउ छगना-मगना ।
धूसरि धूरि दुहूँ तन मंडित, मातु जसोदा लेति उछँगना ॥
बसुधा त्रिपद करत नहिं आलस तिनहिं कठिन भयो देहरी उलँघना ।
सूरदास प्रभु ब्रज-बधु निरखति, रुचिर हार हिय बधना ॥
भावार्थ :-- गोपनारियाँ हरि के निर्मल यश का गान कर रही हैं । श्रीनन्दराय का आँगन मणिजटित है, वहाँ गोपाल बालरूप में घुटनों सरकते हैं । (उठने के प्रयत्न में) वे गिर-गिर पड़ते हैं फिर घुटनों चलने लगते हैं । दोनों भाई बलराम-घनस्याम खेल रहे हैं । धूलि से धूसर दोनों के शरीर सुन्दर लग रहे हैं, माता यशोदा उन्हें गोद में ले लेती हैं(वामनावतार में) पूरी पृथ्वी को तीन पद में नाप लेने में जो नहीं थके, (गोकुल की शिशु-क्रीड़ा में) उनके लिये चौखट पार करना कठिन हो गया है । सूरदास जी कहते हैं--मेरे स्वामी के वक्षःस्थलपर सुन्दर हार तथा बघनखा शोभित हो रहा है, व्रज की गोपियाँ उन की इस शोभा को देख रही हैं ।