Last modified on 8 मई 2011, at 22:19

हरियाली - २ / नरेश अग्रवाल

हल्के से वार से काट ली जाती है घास
और मेरा कोई क्या ले गया
कौन से जख्म दे गया पता भी नहीं
और जो ले गया उसकी कीमत भी नहीं
लेकिन सचमुच हरियाली नहीं मुझमें
और जब चीजें हो जाती हैं ठोस,
उसमें लहरें कैसी
मैंने खो दिया है लहरों की तरह बढ़ना
बढ़ता हूँ लौह मानव की तरह
जैसे सारा प्रेम दब गया हो
किसी भार के नीचे ।