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हरी पत्तियों पर फिसलती रही / रमेश 'कँवल'

हरी पत्तियों पर फिसलती रही
हसीं घूप शाख़ों पेफलती रही

ज्वालामुखी क़हर ढ़ाते रहे
नदी पर्वतों से निकलती रही

वरक़1 दर वरक़ मैं ही रौशन रहा
वो अलब़म पे अलबम बदलती रही

तमाज़त2 अजब नर्म कलियों में थी
हवा पंखा रह रह के झलती रही

किसी दस्तख़त की करामात3 थी
मेरी ज़िन्दगी हाथ मलती रही

हवस की निगाहें खरीदार थीं
पकौड़ी वो मासूम तलती रही

'कंवल’ इक समुंदर था हैरत ज़दा
नदी कैसे उसको निगलती रही


1. पृष्ट-पन्ना, 2. उष्मा, गर्मी 3. चमत्कार।