रोज ना जाने कितने,
हर्फ़ बदलते हैं,
लफ़्ज़ों में,
उतरते हैं कागजों पर,
और चढ़ते हैं जुबां पर...
क्या वो सिर्फ सियाह हर्फ़ हैं?
या किसी का दर्दे बयाँ हैं !
इतना आसान नहीं,
हर्फ़ का लफ्ज़ होना,
जुबान पर चढ़,
दिल पर हुकूमत करना...
खोनी होती है नींद,
और जज्बातों के उठते शोलों की लपट,
लेनी होती है उँगलियों को,
ताकि जब वो कागज पर उतरे,
तो उतर जाए गले,
कभी मय बनकर,
कभी मधु बन कर,
और दोनों की तासीर,
या मदहोश कर दे...
या बाहोश...
कभी आग बने,
जो रूह फ़ना कर दे,
कभी तल्ख जुमलों में,
पिघला दे,
उस पत्थर को,
जो ना हर्फ़ समझे...
ना लफ्ज...
ना मोहब्बत की जुबां...
ना दिल रखे अपने अन्दर,
ना वो ऑंखें,
जो देख सकें,
हर हर्फ़,
उसी के नाम का...
हर लफ्ज,
उसी की खातिर...
कोई समझाए,
कि वो लफ्ज कहाँ से लायें...
जो उसे समझ आयें...