जीवन की सन्ध्या में, मैं नयी-पुरानी शून्यताओं
का बचा हिसाब नहीं जोड़ना चाहता;
बल्कि अपने सारे हिसाबों में से शून्यताएँ
चुन-चुन कर घटाना चाहता हूँ
क्या हुआ? जो जीवन भर कुछ अभाव स्थायी ही बने रहे
कुछ पूर्तियाँ, पूरी होकर भी बिल्कुल सतही रहीं,
फूलों की बीथिकाओं से होकर हमारी जिन्दगी नहीं गुजरी,
दो धुँधली वासन्ती रेखाएँ तक हमारे हाथ में नहीं रहीं!
अब अस्ताचल पर मैं, उम्र के उजड़े बागों के
मजार नहीं बनाना चाहता;
पर यादों से गुँथे, हर बाग के हँसते हुए
गुलाबों की उम्र बढ़ाना चाहता हूँ!
जीवन की सन्ध्या में....!
ज़िन्दगी की सुबह अगर एक वरदान थी
ज़िन्दगी की दोपहरी अस्तित्व की ऊर्जा थी, प्राण थी,
अब, जब शाम आ ही गई है सामने अँधेरे ओढ़े
मैं क्यों ना मानूं, यह साँझ है प्यासों की, तृप्तियों की,
अवसान की बहुत सी बुझी आरतियों के धुँए में
आँखों मंे नहीं आँजना चाहता;
पर हर आरती में थोड़ी सी उजली रोशनी लिये
आखिरी अँधेरों से गुजरना चाहता हूँ!
जीवन की सन्ध्या में...!