हर नई फुनग
पुराने पत्ते से बेहतर नहीं होती
मेरी आँखें बदल जाती हैं
उँगलियों की बंदिश भी
कान पकड़ते हैं ध्वनियाँ
अपनी तरह
विषबुझी लपटों से गुज़र कर ही
कविता का स्थापत्य उभरा है
भावों के मेहराब
बिंबों के बहिर्मुख गवाक्ष
जो लगता है विनम्र
सफ़ेद कपड़ों से
मंद-मंद मुस्कान से सहोदर
नेजे छिपे होते हैं मुठ्ठियों में
दाँत और नाख़ून भले न हों मेरे से
दिल होता है भूखे भेड़िए का
क्या तुमने देखा है ख़ून से बना गारा
काँपती हुई धरती के वक्ष पै
माथे के पसीने में दमकती अन्न की आभा
तुम तो हो लाखों-करोड़ों-करोड़
फिर क्यों मुठ्ठी भर
बना देते हैं तुम्हें गूँगा, बहरा और अपंग
मैं सहता रहूँगा तुम्हारे आघात
जब तक मेरी जड़ें मुझे न छोड़ें
तुम्हें देखने न दूँगा अपने आँसू
पत्थर पर उकेरे गए रेखाचित्रों में
तुम्हें दिखने लगेंगी
अपनी मृत्यु की सुर्ख जीभें
जिन हड्डियों पर खड़ी है
यह भव्य इमारत
सुनो उसमें कराहटों की साँसें
जीवन के मुरझाए पत्तों की झरन
(दिसम्बर, 2012, जयपुर)