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हर बात पुरानी लगती है / लाल्टू

हर बात पुरानी लगती है
ख़बरें दुहराती हैं ख़ुद को

ऐसा नहीं कि फिर से हूण शक कुषाण
चरित्र नहीं वैशिष्ट्य दिखता विद्यमान निरंतर

जीवन शुरु हुआ मुझ से ही
हर धार का उद्गम मैं ही
समझना मुश्किल कि दूसरों को दिखता यह क्यों नहीं

तो क्या कहता रहूँ अब भी कि विरोध ज़रुरी है
ज़रुरी है विक्षिप्त हो उठना हर बसंत हर सावन
देखकर कि उत्सव नहीं है मौसम
मनुष्य के लिए

कि मनुष्य नहीं मनुष्य है जंतु
या कहीं जंतु से भी बदतर

कितनी बार दुहराऊँ कि लकीरें बनावटी हैं
कितनी बार समझाऊँ कि वस्त्र नहीं होते तन पर जब जनमते हैं हम
कितनी बार तड़पूँ कि जितने सुनने वाले हैं
उनसे कहीं ज़्यादा है न सुनने वालों की तादाद

और फिर कुछ हैं कि
जाने क्यूँकर कहते रहते हैं सुख है दैन्य में भी।