हर रोज़ तरह आज भी
सूरज खिड़की पर
एक नई सुब्ह लिये खड़ा था
हर रोज़ तरह
आज भी
बनफ़शी ख़्वाबों का हाथ थामे
ज़रुरत ने दिन तमाम किया
हर रोज़ तरह
आज भी
कहीं से धुआं उठा
कोई चीख़ दबी
कोई ख़ामोश हो गया
हर रोज़ तरह
बदन से इजाज़त लिये बग़ैर
आज भी
कई लोग रुख़्सत
हर रोज़ तरह
आज भी॥