यह हलाल की मुर्गी कब तक
ख़ैर मनाए जान की ।
कब गर्दन पर पड़े गँड़ासा
मर्ज़ी है भगवान की ।
धर्म न नैतिकता सत्ता की
बजे हुक़्मनामों की तूती ।
जनादेश के ढोल-मजीरे
जनता यहाँ पाँव की जूती ।
दिए-लिए की पंचायत है
पौबारह परधान की ।
पगड़ी उछले है ग़रीब की
न्याय अमीरों की रखैल है ।
लोकतंत्र फूहड़ मज़ाक़ है
वही जुआ है , वही बैल है ।
बात कहाँ रह गई आज वह
दया-धर्म-ईमान की ।
जो जीता सो वही सिकन्दर
शोभापुरुषों की दिल्ली है ।
सूझेगी न मसख़री क्योंकर
डण्डे पर उनके गिल्ली है ।
पाँच साल की अधम चराई
फ़िक्र किसे इनसान की ।
लड़ें साँड़ बारी का भुरकस
गुड़-गोबर हो गई तरक्की ।
धरती माता बोझ सम्भाले
चलती जाए समय की चक्की ।
बन्द पड़ी है जाने कब से
खिड़की नए विहान की ।
नौ कनौजिया, नब्बे चूल्हे,
ताना-बाना, सूत पुराना ।
तवा-तगारी बिन भटियारी
बाजी ताँत, राग पहचाना ।
गुण्डे सब काबिज़ मँचों पर
भाषा है शैतान की ।
नीम-बकायन दोनों कड़वे
भ्रम मिठास का टूट रहा है ।
महज़ ठूँठ रह गई व्यवस्था
कुत्ता जिस पर मूत रहा है।
दृश्य फ़लक पर गहन अन्धेरा
रौनक इत्मीनान की ।