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हवायें संदली हैं / सोम ठाकुर

हवाए संदली हैं
हम बचें कैसे?
समय के विष बुझे
नाख़ून बढ़ते हैं

देखती आँखें छलक कर
रक्त का आकाश दहका-सा
महमहाते फागुनो में झूलकर भी
रह गया दिन बिना महका सा
पाँव बच्चों के
मदरसे की सहमती सीढ़ियों पर
बड़े डर के साथ चढ़ते हैं

स्वप्नवंशी चितवनों को दी विदा
स्वागत किया टेढ़ी निगाहों का
सहारा छीन लेते हैं पहरूए खुद
उनींदे गाँव की कमज़ोर बाहों का

ज़रा जाने-
भला ये कौन है जो
आदमी की खाल से
हर साज़ मढ़ते हैं?
समय के विष बुझे नाख़ून
बढ़ते है ।