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हवा ऐसी चली/ रविशंकर पाण्डेय

हवा ऐसी चलीः
सुधि का तरल लगा
हिलोर भरने,
कुछ अप्रत्याशित घटा
जो लगा मन को-
विभोर करने!

बंद सीमित दायरे में
तेरे अंधियारे, उंजेरे
कसमसाने लगे, उद्यत-
तोड़ने केा सात फेरे,
फूल के अहसास सा-
कुछ लगा मन में जोर पड़ने!

चाँद
गीले बादलों की
नम तहों में
सो रहा है
आज तेरी याद का
सब पर
नशा सा हो रहा है,
थके राही की लगी लो-
आँख की क्यों कोर झरने!

तेरी बू से अलग
जीवन, का
कोई क्षण नहीं है
रिश्तों के इन सैलाब में
मैं हूँ मगर
मन तो कहीं है,
उफ! बीच में
पूजा का घंटा
लगा कैसे
शोर करने!