एक बड़ा सा द्वार खुला,
सफ़ेद चोले में दो परियाँ,
मुझे लेने आई,
उन्होंने मुझे बाहों में थाम लिया,
मैंने आँखें मूँद ली,
हवा की सनसनाहट से,
मेरी पलकें खुली,
मैंने देखा कि मैं जिस छाँव में बैठा हूँ,
उस छाँव में बेहद महफूज़ हूँ,
मेरे आगे पीछे, दायें बाएं,
बहुत से दरख़्त हैं,
कुछ हरे हैं, कुछ सूखे हैं,
कुछ की छाँव में आराम है,
तो कुछ हैं तपे हुए से,
मैं अपनी छाँव में महफूज़ रहता हूँ,
मगर जब भी धूप से गुजरता हूँ,
अपनी परछाई को,
अपने वजूद को,
अपने से भी ज्यादा,
जमीं पर फैलता हुआ पाता हूँ,
तब जी में आता है,
इन दायरों को तोड़ दूँ,
और अपनी परछाई को ओढ़ लूँ,
और ओढ़ कर –
हर छाँव में समा जाऊं,
हर गाँव से गुजर जाऊं,
हर कतरे में उतर जाऊं,
हर ज़र्रे में संवर जाऊं...