हवा ठंडी-
बहुत ठंडी
मारती है
चपत मुझको
बार-बार।
धूप
मेरी पीठ करती
ताप तापित बार-बार।
द्वन्द्व यह
निर्द्वन्द्व होकर
झेलता हूँ
मार खाता
पीठ अपनी
सेंकता हूँ-
रचनाकाल: ११-१-१९९२
हवा ठंडी-
बहुत ठंडी
मारती है
चपत मुझको
बार-बार।
धूप
मेरी पीठ करती
ताप तापित बार-बार।
द्वन्द्व यह
निर्द्वन्द्व होकर
झेलता हूँ
मार खाता
पीठ अपनी
सेंकता हूँ-
रचनाकाल: ११-१-१९९२