मौन था मैं, आह भर भर कर कराहे रात भर तुम;
नीम! मेरे भाव हैं वह, दे रहे हो तुम जिन्हें स्वर?
झकझोर जाती मुझे भी, जब जो अधीर झकोर आती;
बिंधे उर की मुरलिका के सुप्त रंध्रों को रुलाती;
बँधे बंदी! सुनो तुममें और मुझमें कहाँ अन्तर?
तारकों की छाँह में मैं भी किसी को झाँकता हूँ,
शून्य में मैं भी किसी के लिए बाँह पसारता हूँ!
देखता हूँ क्या न मैं भी नित्य अगम अथाह अम्बर!
जब समय आता, सखे, मधुमास-पतझर तुम्हें आते;
किन्तु क्या वह हृदय का बिश्वास भी सब फूँक जाते?
भूल मेरी ही नहीं, मैं रहूँ जिस पर सदा निर्भर!