Last modified on 22 जून 2020, at 09:48

हवा शहर की / शशि पुरवार

हवा शहर की बदल गयी
पंछी मन ही मन घबराये।

यूँ, जाल बिछाये बैठे हैं
सब आखेटक मंतर मारे
आसमान के काले बादल
जैसे, जमा हुये हैं सारे

छाई ऐसी घनघोर घटा
संकट, दबे पाँव आ जाये ।

कुकुरमुत्ते सा, उगा हुआ है
गली गली, चौराहे ख़तरा
लुका छुपी का, खेल खेलते
वध जीवी ने, पर है कतरा

बेजान तन पर नाचते हैं
विजय घोष करते, यह साये।

हरे भरे वन, देवालय पर
सुंदर सुंदर रैन बसेरा
यहाँ गूंजता मीठा कलरव
ना घर तेरा ना घर मेरा

पंछी उड़ता नीलगगन में
किरणे नयी सुबह ले आये।