कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है
फिर फिर फिरे गई हैं आंखें
रेत बिछी सी
पलकों से बूंदें अंवेर कर
रखीं रची सी
हिलक-हिलक कर रहीं खोजती
तट पर जैसे एक समंदर
बरसों से प्यासी थी शायद
धूप चाटती सोख गई है
कोई एक हवा.....
हुए पखावज रहे बुलाते
गूंगे जंगल
बज-बजती सांस हुई है
राग बिलावल
झूल गया झलमलता सपना
झूले जैसे एक रोशनी
बरसों से बोझिल थी शायद
रात अंधेरा झोंक गई है
कोई एक हवा.....
थप थप पांवों ने थापी है
सड़क दूब सी
रंगती गई पुरुषा दूर को
दिशा उर्वशी
माप गई आकाश एषणा
जैसे एक सफेद कबूतर
होड़ बाज ही होकर शायद
डैने खोल दबोच गई है
कोई एक हवा ही शायद
इस चौराहे रोक गई है