Last modified on 21 नवम्बर 2014, at 10:56

हवा हो तुम / मनीषा पांडेय

चीड़ के जंगलों से बहती चली आती
हवा हो तुम
आती
बालों को उड़ाती
दुख से चुभती आंखों पर सुख बनकर बैठ जाती
गालों को दुलार से छूती
बतियाती
पूछती हाल,
कभी न कही गई कहानियां
मन के सबसे अंधेरे कोने
अपने संग बहा ले जाती
सब उदासियों का बोझ
मन इतना हल्‍का
जैसे हवा में उड़ते
रूई के फाहे हों