वुजूद-ए-अब्र मिट रहे हैं,
आसमानों में,
हैं ओढे शबनमी लिबास,
सब्ज़ा-ज़ारों ने!
वो ग़ुल,
जो सूखे से,
मुरझाए से,
बिखरे थे यहाँ,
हैं बदौलत-ए-फस्ल-ए-बाराँ,
फिर निखरने लगे!
दिल-ए-मायूस-ओ-शिकस्ता को,
आ रहा है क़रार!
उन्हीं मदमाती हुई यादों,
से है घिरने लगा!
सुरूर-ए-मैक़दा सिमट के रह गया है यहीं,
ख़ुमार कत्रा-कत्रा हो बिखर रहा है यहीं,
झूमते- नाचते गाते हैं,
चमन-साज़ सभी,
बस एक तू भी जो ऐसे में नज़र आ जाए,
तो निखरते हुए फूलों की चमक का जादू,
बढे कुछ और,
मेरे चार-सू समा जाए!
उत्तरार्ध, 1996