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हस्तधुनन / साहिल परमार

ठिठुरती हुई
इस जाड़े की ठण्डी रात में
रुक गया है पल,
जम गई है हवा,
सिकुड़ गया है दीये का प्रकाश
अगर कुछ पिघलता हो,
बहता हो,
फैलता हो
तो वह है तेरा हाथ।

पतली गूदड़ तले ठिठुरते-ठिठुरते
मैं
तुझे अपने आलीशान बंगले में
कम्बल ओढ़ कर
सोई हुई देखता हूँ।

नाईट लैम्प का उजाला
तेरे उजले चेहरे का
मेकअप कर रहा होगा।

मैगज़ीन के कुछ पन्ने
विरहाकुल होंगे
अनछुए रह गए
मेरे पुरखों की तरह।

तेरा बम्मन बाप
नींद में भी
मुरारी बापू के होठों से निकली
कोई चौपाई बड़बड़ा रहा होगा
या फिर चुपड़ा चुका होगा
तुझे जिन की वजह से
मेडिकल में प्रवेश नहीं मिला
ऐसे आरक्षियों को ग़ाली।

जो कुछ भी हो
पर
चाली पर आक्रमण करनेवाली
जाड़े की इस ठण्डी रात में
गर्माहट भरा कुछ भी हो
तो वह है
मेरी ‘नहीं आएँगे ‘ कविता से
ख़ुश होकर
तूने
मेरे हाथ से मिलाया है हाथ
जो अब भी ....।

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार