Last modified on 9 अगस्त 2012, at 16:55

हाँ, दोस्त / अज्ञेय

हाँ, दोस्त,
तुम ने पहाड़ की पगडंडी चुनी
और मैं ने सागर की लहर।
पहाड़ की पगडंडी :
सँकरी, पथरीली,
ढाँटी,पर स्पष्ट लक्ष्य की ओर जाती हुई :
मातबर और भरोसेदार
पगडंडी जो एक दिन निश्चय तुम्हें
पड़ाव पर पहुँचा देगी।
सागर की लहर
विशाल, चिकनी,
सपाट
पर बिछलती फिसलती हमेशा अज्ञात अदृश्य को टेरती हुई,
बेभरोस और आवारा...
लहर जो न कभी कहीं पहुँचेगी न पहुँचाएगी
न पहुँचने देगी, जो डुबोएगी नहीं तो वहीं
लौटा लाएगी
जहाँ से चले थे, सिवा इस के
कि वह वहीं तब तक नहीं रह गया होगा।
ठीक है, दोस्त
मैं ने लहर चुनी
तुम ने पगडंडी :
तुम
अपनी राह पर
सुख से तो हो?
जानते तो हो कि कहाँ हो?
मैं-मैं मानता हूँ कि इतना ही बहुत है कि अभी
जानता हूँ कि आशीर्वाद में हूँ-जियो, मेरे दोस्त,
जियो, जियो, जियो...

जुलाई, 1970