छिप नहीं सकता वह सुख
तृप्ति बन तिर-तिर
चेहरे पर घिर-घिर
आता हैं फिर-फिर
लुनाई लुटाता
अंगों में आलोक भरता
देह में देवत्व जगाता
वही
हां, वही सुख
जो हरा करता ।
छिप नहीं सकता वह सुख
तृप्ति बन तिर-तिर
चेहरे पर घिर-घिर
आता हैं फिर-फिर
लुनाई लुटाता
अंगों में आलोक भरता
देह में देवत्व जगाता
वही
हां, वही सुख
जो हरा करता ।