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हाथ पत्थर के हुए / कुमार रवींद्र

हाथ पत्थर के हुए
          हम क्या करें
 
यह तुम्हारी देह वासन्ती
उसे कैसे छुएँ
आँख में भी तो हमारी
वक्त के छाये धुएँ
 
तुम जवा की गंध हो
    हम साँस में कैसे भरें
 
फूल होने की कथा
तुम कह रहीं
पर हमारी देह में
कितनी चिताएँ हैं दहीं
 
पंखुरी-सी तुम
   तुम्हें कैसे चिताओं में धरें
 
छुवन का इतिहास
यादों में बसा
फिर रहा है इन दिनों फिर
नेह का चिट्ठीरसा
 
यह वसंती हवा
   इसमें भला हम कैसे झरें