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हामी भी न थे मुनकिर-ए-ग़ालिब भी नहीं थे / इफ़्तिख़ार आरिफ़

हामी भी न थे मुनकिर-ए-ग़ालिब भी नहीं थे
हम अहल-ए-तज़बज़ुब किसी जानिब भी नहीं थे

इस बार भी दुनिया ने हदफ़ हम को बनाया
इस बार तो हम शह के मुसाहिब भी नहीं थे

बेच आए सर-ए-क़रया-ए-ज़र जौहर-ए-पिंदार
जो दाम मिले ऐसे मुनासिब भी नहीं थे

मिट्टी की मोहब्बत में हम आशुफ़्ता-सरों ने
वो क़र्ज़ उतारे हैं के वाजिब भी नहीं थे

लौ देती हुई रात सुख़न करता हुआ दिन
सब उस के लिए जिस से मुख़ातिब भी नहीं थे