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हाय शब्द / नवनीता देवसेन

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पुकारने भर से नहीं आते वे
प्रचलित ईश्वर की करुणा की तरह -
चाहिए लग्न, चाहिए मन, कम-अज़-कम मर्ज़ी।
खड़े रहते हैं शब्द
ठीक जैसे आकाश की देह पर
सूर्यास्त की अनोखी विनम्रता
असंलग्न, अगोचर, एकाकी -
हालाँकि ध्यान से मानो स्पर्श किए हुए
प्यार से उंगलियों से छूते हुए-से
अनुगता पृथ्वी के चंचल कुंतल।

आहा, मानो चौरंगी के स्टूडियो के फ्रेम में
आदर्श दांपत्य-चित्र,
हालाँकि भीतर वे आज भी एक-दूसरे को नहीं पहचानते
या कि किसका चेहरा है
वे कभी याद नहीं रखेंगे
मुद्रा के सम्मोहन से बंधे क्षण-भर के मॉडल वे दो लोग।
वैसे ही रहते हैं शब्द भी -
मस्तिष्क की फुनगियों पर
गुलाबी सूर्य की शिखाएँ
देखने पर क्षण-भर की होली -
लेकिन सिर्फ़ उतना ही।
वे गलाएंगे बर्फ़, ऐसे ही ऊष्मा देंगे,
बिल्कुल पास आ जाएंगे,
ख़बरदार तुमने सोचा है कभी!
धोती की पटलियाँ उंगलियों से दाबे
शब्दों के राजाबाबू लोग
क़लम के कीचड़ से बचकर
कल्पना की घोड़ागाड़ी के पायदान पर चढ़ जाते हैं।


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी