घर की कूण मै सबतै न्यारा धरया रहै था
मां के हाथ का बण्या हारा धरया रहै था। हारे की आग का अपणा कमाल हो ज्याता
सारे दिन दूध पक कै लाल हो ज्याता।
ऊहं दूध की खुशबू न्यारी उठ्या करती
पाछे खुरचण्ड सारी छूट्या करती।
खुरचण्ड नै भी सारे मिलकै खाया करते
खीचड़ी भी बाजरेकी हारे पै बणाया करते।
चणे की दाल़ भी गैल्लां गिरया करती
हारे के धोरे ए बिल्ली फिरया करती।
ऊख्खल़ मैं कूट कै बाजरे नै फटकारते
गेर कै नूणी घी आंगल़ी तै चटकारते।
टीकड़े भी सेक्या करती हारे की आग
उस्सै पै बण्या करता खाट्टे का साथ।
हारे के अगांरी तै भरती चिलम
वा हारे की आग रह थी जुलम।
पर आज हवा बदलगी गाम की
घर मै जघां कोन्या हारे के नाम की।
घर भी संस्कारां का फूट्या पड़या सै
ऊहं घर मै वो हारा भी टूटया पड़या सै।
ऊहं की गैल्लां ए छूटग्या सब कुछ
वो टीकड़े वा राबड़ी वो खाट्टे का साग
वा बाजरे की खिचड़ी वा चूल्हे की आग।
ना रहग्या वो दूध ना रहग्या वो पल़िया।
आज क्हाल के लोग बस खारहे सै दल़िया।