संभावनाओं की नदी में डुबकियाँ लगाते
खुदाई से निकले जमाने की तरह
कितना कुछ अनिश्चित है जैसे
ये हालात और ये रफ़्तार
मौत भी अब कहाँ रही पहले वाली मौत
सुबह भी नहीं रही अब पहले वाली सुबह
इतनी ज्यादा ठोकरें फिर भी
मैं क्यों नहीं हो पाई सुर्खरू
शताब्दियों का दर्द समेटे
कई-कई जुबानों में हकला रही थी पीड़ा
याद आया ग़ालिब का वह मिसरा
'शम'अ हर रंग में जलती है सहर होने तक