ये हाशिये का नवगीत है
जो अक्सर
बिना गाये ही गुनगुनाया जाता है
एक लम्बी फेहरिस्त सा
रात में जुगनू सा
जो है सिर्फ बंद मुट्ठियों की कवायद भर
तो क्या हुआ जो
सिर्फ एक दिन ही बघार लगाया जाता है
और छौंक से तिलमिला उठती हैं उनकी पुश्तें
तुम्हारे एक दिन के चोंचले पर भारी है उनके पसीने का अट्टहास