पर विकास को देखकर, मन होता वेचैन।
सदा दूसरों की कमी, आज देखते नैन।।
इस झूठे संसार में, अजब-अजब हैं खेल।
चोर और कानून का, हुआ भीतरी मेल।।
छली गई जनता पुनः, आँखें हैं हैरान।
मंत्री का भत्ता बढ़ा, जनता लहूलुहान।।
हिंदी मीरा-जायसी, हिंदी तुलसी-सूर।
हिंदी का साहित्य फिर, क्यों इतना मजबूर।।
जीवन में कल के सदृश, वही पीर-संघर्ष।
फिर कैसे मैं मान लूँ, आया है नव वर्ष।।
तभी पूर्ण होंगे सभी, ‘रूपम’ अपने स्वप्न।
जब हम अपनी हार पर, स्वयं करेंगे प्रश्न।।
श्रम करते हैं आप ये, तब मानेंगे लोग।
जब श्रम देगा आपको, सुख, सुविधा के भोग।।
हो जातीं हैं डिग्रियाँ, ‘रूपम’ सिर्फ कबाड़।।
अगर आज के दौर में, कोई नहीं जुगाड़।।
पल भर में ही छोड़ते, दर्द हमारा साथ।
माँ जब सिर पर प्यार से, रखती अपना हाथ।।