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हिड़की भर-भर रोए / गीता पंडित

दरक रहा
ये समय सिसकता
खटिया पर आ सोए
देख नदी का पपड़ाया तन
हिड़की भर-भर रोए

हंडिया चूल्हे पर सर रखकर
अँसुवन से बतियाये
कहाँ गयी वह गुनिया जो अब
आग लगा
सुलगाये

भूख खड़ी बेबाक यहाँ पर
अंतड़ियों को धोए

चरमर चरमर बाट जोहते
सोए कब दरवाजे
गैया का खूँटा रम्भाये
कोई काज न साजे

रात नवेली अंक लगाकर
आंगन को आ ढोए

पलक नहीं झपकाए घर वर
अँखियाँ बैठीं द्वारे
गुनिया कि चूनर लटकी है
पीपल डाल उचारे

लाश लटकती
हर चौराहे
प्रश्न समय पर बोए।