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हितकारी नाथ / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

हितकारी तुझसा नाथ,
न अपना और कहीं कोई।
शुद्ध किया पानी से तन को, सत्यामृत से मैले मन को,
बुद्धि मलीन ज्ञान-गंगा में बार-बार धोई।
ज्वलित ज्योति विद्या की जागी, रही न भूल अविद्या भागी,
कर्म-सुधार, मोह की माया खोज-खोज खोई।
मार तपोबल के अंगारे, पातक पुंज पजारे सारे,
उमगा योग आत्मा अपना भाव भूल भोई।
‘शंकर’ पाय सहारा तेरा, होगा सिद्ध मनारथ मेरा,
छीनदयालु इसी से मैंने प्रेम-बेलि बोई।