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हिन्दोस्तानी माँ का पैग़ाम / सीमाब अकबराबादी

 
मेरे बच्चे सफ़शिकन थे और तीरंदाज़ भी
मनचले भी साहबे-हिम्मत भी, सरअफ़राज़ भी

मैं उलट देती थी दुश्मन की सफ़ें तलवार से
दिल दहल जाते थे शेरों के मेरी ललकार से

जुरअत ऐसी, खेलती थी दश्नओ-खंजर के साथ
बावफ़ा ऐसी कि होती थी फ़ना शोहर के साथ

छीन कर तलवार पहना दी सुनहरी चूड़ियाँ
रख दिया हर जोड़ पर ज़ेवर का एक बारे-गिराँ

दर्स आज़ादी का का देती क्या तुझे आग़ोध में
मै तो ख़ुद ही क़ैद थी इक मजलिसे-गुलपोश में

मैंने दानिस्ता बनाया ख़ायफ़ो-बुज़दिल तुझे
मैंने दी कमहिम्मती की दावते-बातिल तुझे

दिल को पानी करने वाली लोरियाँ देती थी मैं
जब ग़रज़ होती थी दामन में छुपा लेती थी मैं

हाँ तेरी इस पस्त ज़ेहनीयत की मैं हूँ ज़िम्मेदार
तू तो मेरी गोद में ही था ग़ुलामी का शिकार

सुन कि इस दुनिया में मिलता है उसी को इक़्तदार
जिसको अपनी क़ूवते तामीर पर पर हो इख़्तियार.

सफ़शिकन : व्यूह तोड़ने वाले; सरअफ़राज़ : सर ऊँचा रखने वाले; जुरअत: दिलेरी ; क़ूवते तामीर :निर्माण बल  ; इक़्तदार:अधिकार