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हिमालय (कविता) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

हिमालय (कविता)
सोह रहा हे आज हिमालय शान्त मेध- सा
जिसमें जमक र नील हुई हो उज्जवल बरसा
तट रेखाये जिसकी, दीप्त हंसी से उजली
 करती हो पीछे छिप - कौंध कर बिजली।
पडी रात सपनों से भरी गगन की पलकें
 नव बसन्त में ज्यों माधवी-लता की अलकें
भर- भर जाती हैं मुकुलों से औ फूलों से
उड़ी प्रभा दिन की खेतों से सरि- कूलों से
(हिमालय कविता से )