हिमालय / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

अरे हिमालय! आज गरज तू
बनकर विद्रोही विकराल!
लाल-लहू के ललित-तिलक से
शोभित कर ले अपना भाल!

विश्व-विशाल-वीर! दिग्विजयी!
अभिमानी अखंड गिरिराज!
साज, साज हाँ आज गरज कर
कान्ति-महोत्सव के शुभ-साज!

शंख-नाद कर, सिंह-नाद कर
कर हुंकार-नाद भयमान!
पड़े कब्र के भीतर मुर्दे
दौड़ पड़े सुनकर आह्वान!

विहँस उठा ले विजय-पताका
रक्त-ललित प्रचंड उज्ज्वल!
चरणों से उलीच दे सागर
अरे अजेय! अरे पागल!

गरज; काँप जावें जिसको सुन
पाप-वृत्ति के नीच-गुलाम!
मचल पड़े उच्छृंखल-जीवन
मचल पड़े यौवन उद्दाम!

भौंहें चढ़ा आसुरी-बल को
अरे निरंकुश! तू ललकार!
दुष्टों के लघु-वक्षस्थल में
बढ़कर आगे भोंक कटार!

फूट पड़ें शत ज्वालामुखियाँ
भीषण ज्वाला फैलाकर!
दौड़े झंझा हाथों में ले
स्वाधीनता-केतु सुंदर!

उठे प्रबल प्रत्येक हृदय में
विप्लव का विध्वंसक ज्वार!
रक्त-नदी में अट्टहासकर
तैरें प्रतिहिंसा, प्रतिकार!

गिरिवर! आज जगा तू अपना
सदियों का खोया उल्लास!
विश्व देख ले खोल दृगों को
अपने उपकरणों का नाश!
15.1.29

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.