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हिमालय ही नहीं / अश्वनी शर्मा

हिमालय ही नहीं
ये थार भी
सदा से रहा है
हमारी सीमाओं का सजग प्रहरी
शक, हूण, मुगल, गौरी, गजनवी
किसी की भी हिम्मत नहीं हो पाई
इस रेत के समंदर को लांघने की

हजारोें मील की
यात्रा का दर्प
कंधे पर लादे हुए
आक्रान्ता कभी भी
नहीं झेल पाये दर्प
इस
गौरवशाली
स्वाभिमानी धरा के
आत्म गौरव का

आक्रान्ताओं का दर्प
चूर-चूर कर
आत्मसम्मान से
अड़ा रहा है
रेगिस्तान शताब्दियों से
मुट्ठीभर बाजरे का
स्वाभिमान सदैव ही
बना रहा है रक्षक
गंगा औ जमुना की गोद में
पल रहे उस विशाल भू-भाग का
जिसमें सदैव सोना निपजता रहा

चाहे कभी नहीं दिया गया गौरव
इसे उस हिमालय-सा
फिर भी बिना किसी
प्रशंसा के अड़ा रहा है
हर आक्रान्ता की राह का रोड़ा बनकर

रेत और रेत के जायों ने
भूखे रहकर भी
सदा जिया है स्वाभिमान
दांत खटट्े किये
आतताइयों के
कीमत अदा की
सदा ही सिर ऊंचा रखने की
सिर कटाकर।