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हिम किरीटिनी, मौन आज तुम शीश झुकाए / सुमित्रानंदन पंत


हिम किरीटिनी, मौन आज तुम शीश झुकाए
सौ वसंत हों कोमल अंगों पर कुम्हलाए!
वह जो गौरव शृंग धरा का था स्वर्गोज्वल,
टूट गया वह?—हुआ अमरता से निज ओझल!
लो, जीवन सौंदर्य ज्वार पर आता गाँधी,
उसने फिर जन सागर से आभा पुल बाँधी!

खोलो, माँ, फिर बादल सी निज कबरी श्यामल,
जन मन के शिखरों पर चमके विद्युत के पल!
हृदय हार सुरधुनी तुम्हारी जीवन चंचल,
स्वर्ण श्रोणि पर शीश धरे सोया विंध्याचल!
गज रदनों से शुभ्र तुम्हारे जघनों में घन
प्राणों का उन्मादन जीवन करता नर्तन!

तुम अनंत यौवना धरा हो, स्वर्गाकांक्षित,
जन को जीवन शोभा दो : भू हो मनुजोचित!