हिम प्रात
(पर्वतीय जीवन की सृष्टि)
उठे जुगाली करते पशु,
उनके कंठों की
मंजु घंटियों से मुखरित
निर्जन- वनस्थली।
भोर हो गयी, उठे ग्वाले
मृदु-मुरली के स्वर
लगे गुंजाने फिर गिरि के पथ
निर्जन सुन्दर।
( हिम प्रात कविता का अंश)
हिम प्रात
(पर्वतीय जीवन की सृष्टि)
उठे जुगाली करते पशु,
उनके कंठों की
मंजु घंटियों से मुखरित
निर्जन- वनस्थली।
भोर हो गयी, उठे ग्वाले
मृदु-मुरली के स्वर
लगे गुंजाने फिर गिरि के पथ
निर्जन सुन्दर।
( हिम प्रात कविता का अंश)