और ऊँची...
और ऊँची मत करो मीनार अपनी
सुनो, धरती की पकड़ से
दूर होते जाओगे तुम
और अपनी जड़ों से
पहचान खोते जाओगे तुम
वहाँ ऊपर
सह न पाओगे अकेले हार अपनी
हिल रहीं नीवें
कहीं मीनार नीचे आ न जाए
कहीं पिछला उम्र-भर का पाप
तुमको खा न जाए
उधर देखो
रोकने को है नदी भी धार अपनी
कहीं तो रोको उठानें
वक़्त का भी क्या भरोसा
कहीं उलटा हो न जाए
भाग्य जिसने तुम्हें पोसा
मत उठाओ
चाँद-तारों तक नई दीवार अपनी