अपने हाथ बढ़ा कर थाम ली है...
वो नन्ही उँगली तुम्हारी
हर व्यस्तता के.. तुम्हारी..
बीत जाने की राह देख सकती हूँ
दम साधे अस्फुट प्रार्थनाएँ करने लगती हूँ
जब सूँघ लेती हूँ मूर्ख व्यसन तुम्हारे..
नहीं कहते कभी जो मन में धरे बैठे हो
समझती हूँ.. कभी नहीं सुन सकूँगी उन्हें..
'मैं लायक नहीं तुम्हारे'.. तुमने कह दिया..
कौन लायक हैं तुम्हारे.. जहाँ बीतते हो??
अपनी दुर्बलताओं को न मानने का
सबसे आसान तरीका यही था न..
जो भी है.. जैसा भी.. पूरा या अधूरा..
काफ़ी है मेरे लिए..
इसीलिए..
अब तो थाम ली है हाथ बढ़ा के
वो नन्ही उँगली तुम्हारी..
मेरी मुट्ठी में जगमगा रहा है
हीरे-पन्ने-सा एक संसार