Last modified on 30 जनवरी 2012, at 09:47

हुबाब-ए-हस्ती / रेशमा हिंगोरानी

आँख बादल की
छलक जाए
फ़लक पर
जब भी,
एक पानी की ही
चादर सी
ओढ़ लें सब ही,

कभी धीमे से बरसतीं,
कभी तेज़ी से गिरें,
नहीं पीते कभी देखा,
मगर मचलती फिरें!

नाचती हैं,
वो पत्तियों पे
थिरकती बूँदें,
और फ़िसलें कभी,
तो सीधे
ज़मीं पर उतरें,

प्यास उनकी बुझे,
जब हस्ती मिटाएँ अपनी,
देख मँज़र यही,
फिर अश्क बहाए बदली!

04.08.93