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हृदय / मृत्युंजय कुमार सिंह

मेरी आह
का विरल होता छोर
मेरे हृदय तक
शून्य-सा लचीला
एक तनी हुयी आस छोड़ जाता है,
ना तो जिसका होता है क्षय
और ना ही विलय

शब्द-भर, स्वर-भर आह
विसरित हो स्वरों के जगत में
खो जाती है,
रह जाता है
आस से तना
खाली हृदय
जिसका क्षय भी होता है
और विलय भी।