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हृदय का अंतरिक्ष / दिनेश कुमार शुक्ल

फटी बिवाँई
थके हुए पग
यात्राओं में पगे हुए पग
भूली-बिसरी राहों को
फिर मुखरित करते
चले आ रहे पदचापों के साथ

यह अलाव यह रात शिशिर की
टिम-टिम करते काँप रहे हैं
अब भी कुछ नक्षत्र
दृष्टि के अन्तराल में
आँख जमा कर खुद गहरा कर
यदि देखोगे
उन तारों के पीछे तुमको
धुँधला-सा ही सही, दिखेगा
जन्म ले रहा धुमड़-धुमड़ कर आशाओं का ज्वार

वहाँ दिखेंगे तुम्हें धूल में नभमण्डल के
कुछ जीवित पदचिह्न अभी भी तेजगाम
कुछ लक्ष्योन्मुख, कुछ लक्ष्यभ्रष्ट.....

अरे! आज भी तुम्हें मिलेंगे
लोग तुम्हारे-अपने जैसे
अगर कर सको तुम अवगाहन
अपने आभ्यन्तर के विस्तृत अन्तरिक्ष का