अस्तित्व स्वयं का भेदती
मैं सूक्ष्मतम यूँ हो गई
दृष्टि से ओझल हुई और
फिर हवा में खो गयी...
प्रीत पीड़ा के हवन में
स्वयं को होम कर दिया
सुगंधयुक्त भस्म बन
लक्ष्य पथ को तय किया...
मेरे हृदय की लालसा
अदृश्य झोका बन बहूं
प्रिये के निःस्वांस जा
नितांत समाहित रहूँ...
हर आती-जाती स्वांस में
मेरा ही स्नेह मर्म हो
उस तप्त हृदय की धरा
नित प्रेमवृष्टी धर्म हो....
जग पाप-ताप से परे
उरज के मध्य ही गहूँ
मैं प्राण, प्रिय की बनी
संग विरह वेदना सहूँ...